बाल मज़दूरी के मुद्दे को पूरी आबादी के रोज़गार और समान एवं सर्वसुलभ शिक्षा के मूलभूत अधिकार के लिए संघर्ष से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। जो व्यवस्था सभी हाथों को काम देने के बजाय करोड़ों बेरोज़गारों की विशाल फौज में हर रोज़ इज़ाफा कर रही है, जिस व्यवस्था में करोड़ों मेहनतकशों को दिनो-रात खटने के बावज़ूद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, उस व्यवस्था के भीतर से लगातार बाल-मज़दूरों की अन्तहीन क़तारें निकलती रहेंगी। उस व्यवस्था पर ही सवाल उठाये बिना बच्चों को बचाना सम्भव नहीं, बाल मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 11 स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों से जुड़ी विशेष माँगें
अलग-अलग स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी तय की जाये जो ‘राष्ट्रीय तल-स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी’ से ऊपर हो। इनके लिए भी आठ घण्टे के काम का दिन तय हो और उससे ऊपर काम कराने पर दुगनी दर से ओवरटाइम का भुगतान किया जाये। रिक्शेवालों, ठेलेवालों के लिए प्रति किलोमीटर न्यूनतम किराया भाड़ा व ढुलाई दरें तय की जायें तथा जीवन-निर्वाह सूचकांक के अनुसार इनकी प्रतिवर्ष समीक्षा की जाये व पुनर्निर्धारण किया जाये। इसके लिए राज्य सरकारों को आवश्यक श्रम क़ानून बनाने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से दिशा-निर्देश जारी किये जायें। दिहाड़ी मज़दूरों से सम्बन्धित नियमों-क़ानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए हर ज़िले में डी.एल.सी. कार्यालय में अलग से पर्याप्त संख्या में निरीक्षक होने चाहिए, जिनकी मदद के लिए निगरानी समितियाँ हों जिनमें दिहाड़ी मज़दूरों के प्रतिनिधि, मज़दूर संगठनों के प्रतिनिधि तथा जनवादी अधिकारों एवं श्रम अधिकारों की हिफाज़त के लिए सक्रिय नागरिक एवं विधिवेत्ता शामिल किये जायें।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 10 ग़ुलामों की तरह खटने वाले घरेलू मज़दूरों को उनकी माँगों पर संगठित करना होगा
देश में इस समय 10 करोड़ लोग घरेलू मज़दूर के तौर पर काम कर रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ़ एक अनुमान है क्योंकि इसके बारे में कोई भी ठोस आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। इनमें सबसे अधिक संख्या औरतों और बच्चों की है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के अनुसार घरेलू मज़दूर वह है जो मज़दूरी के बदले किसी निजी घर में घरेलू काम करता है। लेकिन भारत में इस विशाल आबादी को मज़दूर माना ही नहीं जाता है। ये किसी श्रम क़ानून के दायरे में नहीं आते और बहुत कम मज़दूरी पर सुबह से रात तक, बिना किसी छुट्टी के कमरतोड़ काम में लगे रहते हैं। ऊपर से इन्हें तमाम तरह का उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। मारपीट, यातना, यौन उत्पीड़न, खाना न देना, कमरे में बन्द कर देना जैसी घटनायें तो अक्सर सामने आती रहती हैं, लेकिन रोज़-ब-रोज़ इन्हें जो अपमान सहना पड़ता है वह इनके काम का हिस्सा मान लिया गया है। इन्हें कभी भी काम से निकाला जा सकता है और ये अपनी शिकायत कहीं नहीं कर सकते।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (दूसरी किश्त) ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों की प्रमुख माँगें
खेतिहर और ग्रामीण मज़दूर अधिकांश मौकों पर न्यूनतम मज़दूरी से बेहद कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं। कई बार उन्हें मिलने वाली मज़दूरी उन्हें ज़िन्दा रखने के लिए भी मुश्किल से ही काफ़ी होती है। खेती के सेक्टर में जारी मन्दी के समय तो उनके लिए हालात और भी भयंकर हो गये हैं। आज देश के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी खेती में मन्दी के कारण मंझोले और धनी किसानों की दिक्कतों पर तो काफ़ी टेसू बहाते हैं, लेकिन उन खेतिहर और ग्रामीण मज़दूरों के बारे में कम ही शब्द ख़र्च करते हैं, जो तेज़ी और मन्दी दोनों के ही समय में ज्यादातर भुखमरी और कुपोषण में जीते रहते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में नरोदवाद की गहरी पकड़ की ओर इशारा करता है। बहरहाल, ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों के लिए जो दूसरी सबसे अहम माँग है वह है न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून की माँग। अभी ये मज़दूर पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों और धनी और मँझोले किसानों के भरोसे होते हैं। वे पूर्णतया अरक्षित हैं और उनके हितों की रक्षा के लिए कोई भी क़ानून मौजूद नहीं है।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (पहली किस्त) सर्वहारा आबादी के सबसे बड़े और सबसे ग़रीब हिस्से की माँगों के लिए नये सिरे से व्यवस्थित संघर्ष की ज़रूरत
भारत में सर्वहारा आबादी, यानी ऐसी आबादी जिसके पास अपने बाजुओं के ज़ोर के अलावा कोई सम्पत्ति या पूँजी नहीं है, क़रीब 70 करोड़ है। इस आबादी का भी क़रीब 60 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सर्वहारा आबादी का है। यानी, गाँवों में खेतिहर और गैर-खेतिहर मज़दूरों की संख्या क़रीब 40 करोड़ है। भारत की मज़दूर आबादी का यह सबसे बड़ा हिस्सा सबसे ज्यादा ग़रीब, सबसे ज्यादा असंगठित, सबसे ज्यादा शोषित, सबसे ज्यादा दमन-उत्पीड़न झेलने वाला और सबसे अशिक्षित हिस्सा है। इस हिस्से को उसकी ठोस माँगों के तहत एकजुट और संगठित किये बिना भारत के मज़दूर अपनी क्रान्तिकारी राजनीति को देश के केन्द्र में स्थापित नहीं कर सकते हैं। सभी पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बारी में लगा होता है और गाँवों में रहता है, वहाँ खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने का सवाल ज़रूरी बन जाता है