हर इंसाफ़पसन्द नागरिक से समर्थन की अपीलभारत की शहरी और ग्रामीण मज़दूर आबादी असहनीय और अकथनीय परेशानी और बदहाली का जीवन बिता रही है। इसमें असंगठित क्षेत्र के ग्रामीण और शहरी मज़दूरों तथा संगठित क्षेत्र के असंगठित मज़दूरों की दशा सबसे बुरी है। उदारीकरण-निजीकरण के बीस वर्षों में जो भी तरक़्क़ी हुई है, उसका फल ऊपर की 15 फ़ीसदी आबादी को ही मिला है। इस दौरान अमीर-ग़रीब के बीच की खाई भारतीय इतिहास में सबसे तेज़ रफ़्तार से बढ़ी है। तेज़ आर्थिक तरक्क़ी के इन बीस वर्षों ने मेहनतकशों को और अधिक बदहाल बना दिया है। आँकड़े इन तथ्यों के गवाह हैं। सरकारें भरोसा दिलाती रहीं और वे इन्तज़ार करते रहे, लेकिन विकास का एक क़तरा भी रिसकर मेहनतकशों की अँधेरी दुनिया तक नहीं पहुँचा। लम्बे संघर्षों और क़ुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार मज़दूरों ने हासिल किये थे, आज उनमें से ज़्यादातर छीने जा चुके हैं। जो पुराने श्रम क़ानून (जो क़तई नाकाफ़ी हैं) काग़ज़ों पर मौजूद हैं, उनका व्यवहार में लगभग कोई मतलब नहीं रह गया है। दिखावे के लिए सरकार जो नये क़ानून बना रही है, वे ज़्यादातर प्रभावहीन और पाखण्डपूर्ण हैं या मालिकों के पक्ष में हैं। श्रम क़ानून न केवल बेहद उलझे हुए हैं, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और लम्बी है और मज़दूरों को शायद ही कभी न्याय मिल पाता है। श्रम विभाग के कार्यालयों, अधिकारियों, कर्मचारियों की संख्या ज़रूरत से काफ़ी कम है और श्रम क़ानूनों को लागू करवाने के बजाय यह विभाग प्राय: मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाता है। श्रम न्यायालयों और औद्योगिक ट्रिब्यूनलों की संख्या भी काफ़ी कम है। भारत की मेहनतकश जनता के लिए संविधानप्रदत्त जीने के मूलभूत अधिकार का कोई मतलब नहीं है। नागरिक आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकार उनके लिए बेमानी हैं। देश के 90 प्रतिशत से ज़्यादा औद्योगिक और ग्रामीण मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टों की उचित सीमा, ई.एस.आई.,जॉब कार्ड जैसे बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं हैं। नारकीय, अस्वास्थ्यकर और ख़तरनाक हालात में जीते और काम करते हुए वे 12-12,14-14 घण्टों तक खटने के बाद भी जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते। भीषण महँगाई के इस दौर में कारख़ानों में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर 8 घण्टे काम के लिए 1800 से 4500 के बीच पाते हैं। आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में मौत या घायल होने पर मुआवज़ा तो दूर, अक्सर इलाज भी नहीं कराया जाता और काम से हटा भी दिया जाता है। ज़्यादातर मज़दूर ठेके, कैज़ुअल, दिहाड़ी या पीसरेट पर काम करते हैं और उनके लिए कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता। किसी भी रूप में एकजुट या संगठित होने की कोशिश करने पर मज़दूरों को या तो सीधे निकाल दिया जाता है या फिर पुलिस और प्रशासन के पूरे सहयोग से दमन-उत्पीड़न-आतंक का शिकार बनाया जाता है। इन हालात में, भारत के मज़दूर, भारत की संसद और सरकार को बता देना चाहते हैं कि उन्हें यह अन्धेरगर्दी, यह अनाचार-अत्याचार अब और अधिक बर्दाश्त नहीं। मज़दूर वर्ग को हर क़ीमत पर हक़ और इंसाफ़ चाहिए और इसके लिए एक लम्बी मुहिम की शुरुआत कर दी गयी है। इसके पहले क़दम के तौर पर, संसद में बैठे जन-प्रतिनिधियों और शासन चलाने वाली सरकार के सामने, सम्मानपूर्वक जीने के लिए,अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करते हुए जीने के लिए, अपने न्यायसंगत और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए, और इस देश की तमाम तरक़्क़ी में अपना वाजिब हक़ पाने के लिए मज़दूरों का एक माँग-पत्रक प्रस्तुत किया जा रहा है। इस माँग-पत्रक में कुल 26 श्रेणी की माँगें हैं जोभारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं और साथ ही उसकी राजनीतिक माँगों को भी अभिव्यक्त करती हैं। आगामी 1 मई, 2011 को देश के कई हिस्सों के मज़दूर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों से युक्त इस माँग-पत्रक को लेकर दिल्ली में संसद पर दस्तक देंगे। फ़िलहाल मज़दूर ज़्यादा कुछ नहीं माँग रहे हैं। वे संसद में बैठे बहरों से बस यह माँग कर रहे हैं कि इस देश के क़ानून मज़दूरों को जो हक़ देने की बात करते हैं उन्हें लागू करने का इन्तज़ाम तो करो। इंसान के नाते जीने के लिए जो कुछ चाहिए, न्यूनतम वह तो दो। मज़दूर वर्ग की लड़ाई बहुत आगे तक जाती है, लेकिन अभी अपने जनवादी (लोकतांत्रिक) अधिकारों की माँग से शुरुआत की जा रही है। यह नयी पहल इस मामले में महत्वपूर्ण है कि मज़दूर अलग-अलग झण्डे-बैनर के तले नहीं बल्कि ‘मज़दूर माँग-पत्रक आन्दोलन’ के एक ही साझा बैनर के तले अपनी माँगें रख रहे हैं। अलग-अलग मालिकों से लड़ने में मज़दूर खण्ड-खण्ड में बँट जाते हैं जिसका सीधा फ़ायदा मालिकों को होता है। इसलिए ‘मज़दूर माँग-पत्रक आन्दोलन’ पूरे मज़दूर वर्ग की माँगों को देश की हुक़ूमत के सामने रख रहा है। इस आन्दोलन की माँगों को गढ़ने में देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले कुछ स्वतंत्र मज़दूर संगठनों, यूनियनों और मज़दूर अख़बार की भूमिका है, लेकिन यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि यह आन्दोलन किसी यूनियन, संगठन या राजनीतिक पार्टी के बैनर तले नहीं है। इसका प्रारूप तैयार करने और इसे मज़दूरों तक पहुँचाने में इन स्वतंत्र मज़दूर संगठनों, यूनियनों और मज़दूर अख़बार ने पहल की है,इस पर विचार-विमर्श के लिए कुछ इलाक़ों में हुई मज़दूरों की छोटी-छोटी पंचायतों की भी इसमें भूमिका है, लेकिन इसका लक्ष्य है कि ‘मज़दूर माँग-पत्रक आन्दोलन’ उन सबका आन्दोलन बने जिनकी माँगें इसमें उठायी गयी हैं, यानी देश के समस्त मज़दूर वर्ग का साझा आन्दोलन बने। यह आन्दोलन कई चक्रों में चलेगा। ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के अवसर पर एक प्रतीकात्मक आरम्भ किया जा रहा है है। मज़दूर वर्ग की मुक्ति की लम्बी लड़ाई का यह पहला क़दम है। आज यह शुरुआत प्रतीकात्मक है क्योंकि विशाल मज़दूर वर्ग आज बिखरा हुआ और असंगठित है। लेकिन यह ऐसे ही नहीं रहेगा। शहरों और गाँवों की सर्वहारा तथा अर्द्धसर्वहारा आबादी आज तक़रीबन 75 करोड़ है। इसे लगातार बदहाली का शिकार हो रहे निम्न-मध्यवर्ग का भी समर्थन मिलेगा। संगठित होकर यह एक बहुत बड़ी ताक़त बनेगी। देश की तीन-चौथाई आबादी के हक़ों की यह बात आगे बढ़ेगी तो बहुत दूर तक जायेगी। हम आप सबसे इस आन्दोलन में साथ देने की अपील कर रहे हैं। अगर आप मज़दूर हैं तो इस माँग-पत्रक पर हस्ताक्षर कीजिए, अपने साथियों से कराइये और 1 मई को दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पहुँचने की तैयारी कीजिए। अगर आप मज़दूर नहीं हैं तो अपने आसपास की मज़दूर बस्तियों में जाकर इस माँग-पत्रक के बारे में बताइये, इस पर हस्ताक्षर कराइये और इसके समर्थन में आप भी दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पहुँचिये। पिछले कुछ महीनों से मज़दूरों की बस्तियों, कारख़ाना इलाकों, लॉजों-बेड़ों, झुग्गियों में गली-गली, कमरे-कमरे जाकर माँग-पत्रक पर मज़दूरों के हस्ताक्षर कराये जा रहे हैं, रात्रि बैठकें की जा रही हैं, टोलियाँ बनाकर माँग-पत्रक का प्रचार किया जा रहा है। आप में से जिसे भी, जहाँ भी ये माँगें वाजिब, न्यायपूर्ण लगें, वह अपने इलाके में हस्ताक्षर जुटाना शुरू कर सकता है, या हमारे साथ इन कार्रवाइयों में शामिल होने के लिए हमसे सम्पर्क कर सकता है। बेशक इस माँग-पत्रक पर हस्ताक्षर केवल मज़दूरों के होने हैं लेकिन जो भी इससे सहमत है उसे दिल्ली पहुँचकर अपनी एकजुटता का इज़हार ज़रूर करना चाहिए। मध्यवर्ग के लोग भ्रष्टाचार से बहुत परेशान हैं लेकिन सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो वह है जो देश के तमाम मेहनतकशों को उनकी मेहनत के फल से लगातार वंचित रखता है। पिछले 20 वर्ष में देश में जिस स्वर्ग का निर्माण हुआ है उसके तलघर के अँधेरे में रहने वाली 80 फ़ीसदी आबादी को मूलभूत अधिकारों से भी वंचित करके न्याय की दुहाइयाँ नहीं दी जा सकतीं। यह सोया हुआ ज्वालामुखी जब जागेगा तो स्वर्ग की मीनारें काँप उठेंगी। हर लम्बे सफ़र की शुरुआत एक छोटे-से क़दम से होती है। हक़ और इंसाफ़ के लिए इस मुहिम का साथ देने के लिए हम आपका आह्वान करते हैं! — संयोजन समिति, मज़दूर माँग-पत्रक आन्दोलन-2011 |
Check out our Facebook page http://www.facebook.com/pages/Workers-Charter-Movement-2011/217462924935252 An appeal for solidarity to all justice-loving peopleThe urban and rural working class population of India is living through a life of intolerable and unutterable misery, injustice and economic oppression. In other words it can be best described as a ‘cold day in hell’. The condition of the urban and rural laborers working in unorganized sector and the unorganized laborers of the organized sector is worst amongst them. The fruits of the progress achieved in the last twenty years of the market liberalisation and privatisation have been enjoyed by the top 15 percent of the total Indian population while the gulf between the rich and poor has yawned to an unprecedented scale. In these twenty years of rapid economic development, the condition of the toiling masses has worsened. Government data alone is enough to justify this claim. The workers have only got promises after promises from successive governments but not a single drop of development trickled down to their dark world. – Convening Committee, Worker’s Charter Movement – 2011. |