आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 4 काम की बेहतर और सुरक्षित स्थितियों की माँग इन्सानों जैसे जीवन की माँग है!
मज़दूर भाइयों और बहनों को पशुवत जीवन को ही अपनी नियति मान लेने की आदत को छोड़ देना चाहिए। हम भी इन्सान हैं। और हमें इन्सानों जैसी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि स्वयं मज़दूर साथियों में ही कइयों को ऐसा लगता है कि हम कुछ ज्यादा माँग रहे हैं। वास्तव में, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उजरती ग़ुलाम की तरह खटने चले जाने से पैदा होने वाली मानसिकता है कि हम ख़ुद को बराबर का इन्सान मानना ही भूल जाते हैं। जीवन की भयंकर कठिन स्थितियों में जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि देश की सारी धन-दौलत हम पैदा करते हैं और इसके बावजूद हमें ऐसी परिस्थितियों में जीना पड़ता है। हम भूल जाते हैं कि यह अन्याय है और इस अन्याय को हम स्वीकार कर बैठते हैं। माँगपत्रक अभियान सभी मज़दूर भाइयों और बहनों का आह्नान करता है साथियो! मत भूलो कि इस दुनिया की समस्त सम्पदा को रचने वाले हम हैं! हमें इन्सानों जैसे जीवन का अधिकार है! काम, आराम, मनोरंजन हमारा हक़ है! क्या हम महज़ कोल्हू के बैल के समान खटते रहने और धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिए जन्म लेते हैं? नहीं! हमें काम की जगह पर उपरोक्त सभी अधिकारों के लिए लड़ना होगा। अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि हम कुछ भी ज्यादा माँग रहे हैं। हम तो वह माँग रहे हैं जो न्यूनतम है।
माँगपत्रक शिक्षणमाला – 3 ठेका प्रथा के ख़ात्मे की माँग पूँजीवाद की एक आम प्रवृत्ति पर चोट करती है
मजदूर वर्ग के ही एक हिस्से को यह लगने लगा है कि ठेका प्रथा की समाप्ति की माँग करना शेखचिल्ली जैसी बात करना है। सवाल यहाँ यह नहीं है कि ठेका प्रथा इस माँग के जरिये समाप्त हो ही जायेगी या नहीं। यहाँ सवाल इस बात का है कि हम चाहे ठेका प्रथा को समाप्त करवा पायें या न करवा पायें, इसे समाप्त करने की माँग करना अपने आप में पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति पर चोट है। यह मजदूरों को राजनीतिक तौर पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करने में हमारी मदद करेगा और पूँजीवाद को उनके समक्ष बेपरदा कर देगा। हमें इस माँग के संघर्ष में कुछ भी खोना नहीं है, सिर्फ पाना ही पाना है।